फिर से सफ़र..
सफ़र गैलेक्सी के दूसरे कोने और उससे भी दूर अंतरिक्ष तलक...
देखें कहाँ तक ले जाती है उस अनदेखे अपने की तलाश मेरी...
जो पुकारती है मुझको इन अँधेरी रातों में अपनी बाहें फैलाये...
सारा दिन काट लेती है जो इन सितारों के संग आँख मिचौली खेल के...
रात होते ही तलाशने लगती है मुझको और सुबकती हुई आवाज़ देती है...
वो आवाज़ गरम शीशे सी कानों में जब गूंजती है...
एक और रात काली रात कहती है
चल मुसाफिर
मंज़िल दूर है
ये तो बस मृगतृष्णा है तेरी
मरुभूमि में जल नही
बस उसकी मरीचिका दिखती है
दूर है वो स्रोत झरने का
मंज़िल दूर है तेरी
मुसाफिर
सफ़र ही तेरी मंज़िल है
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