20160413

बंधू

घर
अकेलापन
जुडी हुई यादें
कुछ मसखरी
कुछ द्रवित पल
कुछेक अपने
चन्द सपने
एकाकी होकर भी
साथ होते हैं
कैसे हो अकेले
बंधु

उठो

मना है कुछ सोचना!!!
स्वप्निल आँखों में
स्वप्न संजोना!!!

उठो,
विगत को त्याग
नव विहान की करो तैयारी

यही है जीवन

यही है सार जीवन का

छूटता जाता है
बीता कल
और जुड़ते हैं
नव पृष्ठ

लेखनी इंतज़ार कर रही है तुम्हारा

तुम ही वरो

स्मृति के पटल पर
झिलमिल करते हुए
कुछेक पल
उनको जीते हुए
अश्रु या हास
निर्णय तुम्हारा

तुम ही वरो
स्वयं की खातिर
जीवन तुम्हारा
तुमको ही जीना है

विगत

कमरे की अलमारी
उस अलमारी का निचला खाना
तलाशो विगत के टूटे पेन
खंडित प्रतिमा
जो मित्र ने उपहार दी थी
कुछ डायरी के फटे हुए
पन्ने
धूलधूसरित

क्या रखा है ये???
क्यों रखा है???

विगत के वापस लौटने की प्रतीक्षा में हो!!!
रे पथिक,भोले मनुज
विगत वापस नही आता
कभी नही
व्यर्थ है संजोना उसे

मन की यात्रा (अधूरी)

कालरंग की कालिख से पुती हुई रात और यहां वहां बिखरे प्रकाश के अनंत बिंदु
मन भी काली रात की ही तरह लिपा पुता
विचार का कोई प्रकाश बिंदु किसी भी कोने में नहीं
ऑंखें देखती यंत्रवत सभी कुछ
और बीतते समय के साथ नियमित
जैसे सुनकर भी सुनाई नही देता कुछ
जैसे घाव की पहली कसक मन को हिला डाले
और सब सहज स्वभाव बन जाय

मन किसी यात्रा पर निकल पड़ा
वही गति,वही वेग,वही आवाज़ें
बहुत ही जानी पहचानी सी यात्रा
जानी पहचानी सी राहें
जाना पहचाना सा उन राहों का सन्नाटा
वही बिखरी हुई हवाएँ
जलते हुए अतीत के मंज़र
यही तो है जीवन
न कभी एकांत हटा
और न हटा वो वीभत्स सन्नाटा
पल पल होता रहा छलनी आत्म
शब्द बाणों से

समाज और परम्परा
जिनका न कोई ओर है न छोर
उनके बीच जलते हुए
कभी कभार मन होता है कि स्मृति दर्पण के सामने खड़े हो
गिने घावों को,कराहों को,कसकनों को
कोई हिस्सा तो हो जिससे लहू न रिसता हो
जिसका घाव भर गया हो

एक बच्चा,नवजात शिशु
जिसे अनमने ही असंख्य अनगिनत काँटों की झाड़ियों में फेंक दिया गया
जिस करवट मुड़े
हजारों कांटे सर से पांव तक समा जाएँ
सरकने की कोशिश में
काँटों के वो घाव लंबी लम्बी धाराओं जैसे पुरे शारीर पर खिंच जाएँ
उन काँटों में पड़ा वो टुकुर टुकुर देखे
गिर्द उच्च कुलीन अट्टालिकाओं को
नियति है उसकी

ममता का अदृश्य स्रोत
बहुत खोजा है उसे
हर पल,हर साँस
मुक्ति नही मिली खोज से
बार बार उसी सत्य से टकराया
और टकराहट से उठी अपनी ही सिसकियाँ सुनी
मानवों की इस भीड़ में अकेला
जैसे यंत्र चालित वस्तु कोई
सभी से मिलना जुलना सहयोग करना
जीवन होते हुए भी निर्जीव
बस उपस्थिति है उसकी