20150628

Maanii

सारे ही मानी गिर पडे हैं शब्दों के झाड़ से
कोंपलें निकलती नही हैं पहले की माफ़िक
बाँझ की कोख जैसी खाली है कलम मेरी
किसी ठूंठ के जैसी
वो सियाही ए एहसास सूख के पपड़ी बन गयी है
दाग मिटता ही नही
न ही सियाही घुलती है नयन नीर से
सारे दिन हैं जैसे खाली पेज़
ब़स......

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