सारे ही मानी गिर पडे हैं शब्दों के झाड़ से
कोंपलें निकलती नही हैं पहले की माफ़िक
बाँझ की कोख जैसी खाली है कलम मेरी
किसी ठूंठ के जैसी
वो सियाही ए एहसास सूख के पपड़ी बन गयी है
दाग मिटता ही नही
न ही सियाही घुलती है नयन नीर से
सारे दिन हैं जैसे खाली पेज़
ब़स......
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